किसने बारूद बोया है बागों में?
- Prantik Panigrahi
- 1 hour ago
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“सारी वादी उदास बैठी है, मौसमे गुल ने खुदकुशी कर ली है, किसने बारूद बोया है बागों में?”
गुलजार साहब की ये पंक्तियाँ कश्मीर की असली स्थिति और वहां के लोगों के दर्द को व्यक्त करती हैं।
कश्मीर, जो कभी अपनी खूबसूरती, बाग-बगिचों, और ठंडी हवाओं के लिए मशहूर था, आज वो जगह आतंकवाद, हिंसा, और शांति की कमी से जूझ रही है।
इन पंक्तियों के जरिए गुलजार साहब ने उस धरती की पीड़ा को शब्दों में बांध दिया, जो कभी खुशहाली और हंसी-खुशी से भरी होती थी।
“सारी वादी उदास बैठी है” का अर्थ है कि कश्मीर की धरती पर शांति और खुशियाँ खत्म हो चुकी हैं, और हर जगह बस दुःख और मायूसी का साम्राज्य है।
“मौसमे गुल ने खुदकुशी कर ली है”—कश्मीर का वो सुंदर मौसम, वो गुलाब की खुशबू, जो एक समय लोगों के दिलों को खुशी और सुकून देती थी, अब गायब हो चुकी है।
और अंत में “किसने बारूद बोया है बागों में?” यह प्रश्न उस आतंकवाद और हिंसा की ओर इशारा करता है, जो कश्मीर की खूबसूरती और शांति को बर्बाद कर चुका है।
यह केवल कश्मीर का मामला नहीं है। हम कई बार ऐसी घटनाओं के बारे में सुनते हैं, जिनमें लोग परेशान होते हैं, जीवन को खोने का डर महसूस करते हैं, और अपनी खुद की मानवता से दूर हो जाते हैं। मुंबई के ताज होटल पर हमला, या दिल्ली में हुए दंगे—हमेशा यही सवाल उठता है कि क्या हम ऐसी घटनाओं के होने का इंतजार करते हैं? क्यों हम अपने आसपास हो रहे दर्द और संघर्ष पर ध्यान नहीं देते जब तक कोई बड़ी घटना घट नहीं जाती?
कभी क्यों हमें तब गुस्सा आता है जब हमें नुकसान हो चुका हो?
क्यों हमें अपनी मानवता की रक्षा के लिए उन हमलों के होने का इंतजार करना पड़ता है?
क्या हम किसी भी घटना से पहले, पहले से ही उस दर्द को समझने और हल निकालने का प्रयास नहीं कर सकते?
यह वक़्त है कि हम ऐसी घटनाओं के होने से पहले मानवता की आवाज उठाएं। हमें समाज में भाईचारे, शांति, और आपसी समझ को बढ़ावा देने के लिए प्रयास करना चाहिए।
हम सभी को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई और कश्मीर, मुंबई या दिल्ली जैसी त्रासदी से न गुज़रे। हम सभी का जिम्मा है कि हम उन समस्याओं के समाधान की दिशा में कदम उठाएं, ताकि फिर कभी कोई और बाग़ों में बारूद न उगाए।
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